रमेश सिंह एक ईमानदार और मेहनती लेखपाल था। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में उसका काम हर दिन किसानों की जमीन के रिकॉर्ड की जांच-पड़ताल करना, उनके कागजात सही करना और सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाना था। वह हमेशा खुद को किस्मत वाला मानता था कि उसे अपनी मेहनत से नौकरी मिली, और वह अपने गांव के लोगों की मदद कर सकता था।
रमेश की सादगी और ईमानदारी पूरे इलाके में मशहूर थी। गांव के लोग उसे आदर से देखते थे और उसका सम्मान करते थे। वह अक्सर कहा करता, “काम ईमानदारी से करो, न तो किसी से डरने की जरूरत है, और न ही किसी से छिपने की।” उसकी इसी सोच ने उसे एक शांत और संतुष्ट जीवन दिया था।
लेकिन रमेश की यह सुखी और संतुलित ज़िंदगी अचानक तब बदल गई जब एक दिन उसके पास एक विशेष सरकारी योजना के तहत एक बड़ी जमीन की नाप-जोख का काम आया। इस जमीन के लिए दो अलग-अलग पार्टियों के बीच विवाद था। एक पार्टी ने गांव के प्रभावशाली नेता को अपने साथ मिला लिया, जबकि दूसरी पार्टी ने रमेश पर पूरा विश्वास जताया था कि वह न्याय करेगा।
रमेश ने अपनी पूरी ईमानदारी से जमीन का मुआयना किया और दस्तावेज़ों की गहन जांच के बाद निष्कर्ष निकाला कि दूसरी पार्टी का दावा सही था। उसने उसी अनुसार रिपोर्ट तैयार कर दी।
वह जानता था कि इस फैसले से नेता नाराज़ हो सकता है, लेकिन उसे विश्वास था कि उसकी ईमानदारी उसकी ढाल बनेगी। लेकिन वह यह नहीं जानता था कि उसकी यह सच्चाई उसे कितना महंगा पड़ेगा।
कुछ ही दिनों बाद, रमेश के घर पर निगरानी विभाग और भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी के अधिकारी आ धमके। उन पर रिश्वत लेने और गलत तरीके से जमीन के कागजात में हेराफेरी करने के आरोप लगे। यह सुनकर रमेश स्तब्ध रह गया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी ईमानदारी पर कभी कोई उंगली उठेगी।
उसने अधिकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह निर्दोष है। लेकिन उसके खिलाफ कुछ नकली सबूत पहले ही तैयार कर लिए गए थे। अधिकारियों ने उसकी एक न सुनी और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। गांव में उसकी इज्जत और प्रतिष्ठा एक झटके में खत्म हो गई। लोग अब उसे भ्रष्ट मानने लगे। जिन लोगों ने कभी उसे ईमानदारी का प्रतीक माना था, वही अब उसके खिलाफ बातें करने लगे।
रमेश ने कोर्ट में कई बार अपील की, लेकिन हर बार उसे निराशा ही हाथ लगी। नेता ने अपनी ताकत का इस्तेमाल कर उसके खिलाफ सारे सबूतों को मजबूत बना दिया था। वह खुद को इस जाल से निकालने में असमर्थ महसूस कर रहा था।
घर पर उसकी पत्नी और दो छोटे बच्चे भी इस कठिनाई का सामना कर रहे थे। पत्नी ने कई बार उसे समझाया कि वह रिश्वत देकर इस मामले से निकल सकता है, लेकिन रमेश ने यह कहकर मना कर दिया, “मैंने कभी रिश्वत नहीं ली, और न ही दूंगा। अगर मैंने एक बार गलत रास्ता चुना, तो मेरी सारी मेहनत और ईमानदारी पर पानी फिर जाएगा।
“लेकिन दिन-ब-दिन हालात बदतर होते जा रहे थे। उसका सस्पेंशन लंबा खींचता जा रहा था, और आर्थिक संकट गहराता जा रहा था। रमेश के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा था। वह अपने परिवार को इस अंधकार से निकालने का कोई तरीका नहीं ढूंढ पा रहा था। गांव में उसकी ईमानदारी की जो छवि थी, वह मिट्टी में मिल चुकी थी।
एक दिन, जब रमेश कोर्ट से हारकर घर लौट रहा था, उसके मन में एक अजीब-सी बेचैनी थी। उसने सोचा, “मैंने कभी गलत नहीं किया, फिर भी मेरी यह हालत क्यों हो रही है? क्या ईमानदारी की यही सजा होती है?
“उस रात, वह अकेला अपने कमरे में बैठा था। उसकी पत्नी और बच्चे सो चुके थे। उसने आखिरी बार अपने परिवार की तरफ देखा और उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। वह जानता था कि उसकी लड़ाई अब खत्म हो चुकी है। उसने एक कागज पर लिखा:
“मैंने कभी कुछ गलत नहीं किया, लेकिन शायद इस दुनिया में ईमानदारी का कोई स्थान नहीं है। मुझे माफ कर देना।”
अगली सुबह, उसकी पत्नी ने उसे कमरे में फंदे से लटकता पाया। रमेश ने हार मान ली थी। उसकी ईमानदारी की लड़ाई उसे जीवन के इस मोड़ पर ले आई थी, जहां से वापसी संभव नहीं थी।
गांव के लोग, जो कभी उसे भ्रष्ट मान चुके थे, उसकी मौत के बाद असली सच्चाई जान पाए। नेता और उसके साथियों की साजिश का पर्दाफाश हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रमेश की ईमानदारी को साबित होने में वक्त लगा, लेकिन वह खुद इस दुनिया में नहीं था। उसकी कहानी लोगों के लिए एक सीख बन गई कि इस भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदार लोगों का जीना कितना कठिन हो सकता है।
अंतिम शब्द:
रमेश की मौत के बाद गांव में एक शांति सी छा गई थी। लोग उसकी ईमानदारी और संघर्ष को याद करते थे, लेकिन अब किसी को वह वापस नहीं मिल सकता था। यह कहानी उन हजारों ईमानदार सरकारी कर्मचारियों की दास्तां है, जो बिना किसी गलती के सिस्टम के शिकार हो जाते है
बहुत ही बेहतरीन लेख है।लेखपालों की जीवन ऐसा ही कुछ है।